Saturday 17 January 2015


चार महीनों के पश्चात मैं वापस अपने घर जा रहा था। एक तरफ घर जाने की ख़ुशी तो दूसरी तरफ इस कड़ाके की ठण्ड में पुणे से बक्सर तक का लम्बा सफ़र और सिर्फ़ इतना ही नहीं वातानुकूलित रिजर्वेशन कन्फर्म ना होने की वजह से सायनयन श्रेणी में सफ़र करना था। खैर जो भी हो परन्तु अपने परिवारवालों और परिजनों से मिलने की एक अलग ही ख़ुशी होती है और इस ख़ुशी के आगे ये राश्ता बिल्कुल कष्टदायक न था। पुणे-पटना एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय ८:४० में प्लेटफार्म संख्या एक पर लग चुकी थी। और मैं अपने अमेरिकन टूरिस्टर को खींचते हुए अपने अल्लोटेड सीट पर बैठ गया। इधर उधर ज्यादा ध्यान न देते हुए अपने भाई को मैंने इन्फॉर्म किया की मैं ट्रेन में सवार हो चुका हूँ और ये बिल्कुल भी बिलम्ब से नहीं चल रही है। फिर सुरक्षा की वजह से मैंने आस पास बैठे लोगों को देखना शुरू किया और विंडो सीट पर कब्ज़ा भी जमाये बैठा था। फिर मेरा ध्यान उस बुजुर्ग की तरफ गया जो खादी का कुर्ता पहने मेरे बगल में बैठे थे। महज़ उम्र उनकी ७0-८० के आस पास होगी और मुझे देख रहे थे। जैसे ही उन्हें देखा मैंने झट उनसे बोला की दादाजी आप यहाँ बैठ जाओ। इस छोटी सी समर्पण से उनके चेहरे की जो ख़ुशी थी मैं चंद शब्दों में बयां नहीं कर सकता। उनके बगल में आते ही पास बैठे व्यक्ति ने मुझे धन्यबाद दिया और मुस्कुराते हुए पूछा की कहाँ जाना है ? मैंने झट उत्तर दिया की बक्सर जाना है और वही प्रश्न मैंने उस सज्जन से पूछा। सतना, सतना जाना है मुझे और उसके बाद मैं फिर फ़ोन पर बातें करने लगा। बातों ही बातों में मैंने उस सज्जन को दुबारा देखा तो अजीब सा लगा और मेरे बोलने से पहले वो बोल बैठे की मेरा एक पैर नहीं है और एकाएक मेरा फ़ोन भी कट गया।


ट्रेन अपने निर्धारित समय पर स्टेशन से रवाना हो चुकी थी और अपने परिजनों को छोड़ने आये लोग उन्हें अलविदा कर रहे थे , तो कुछ लोग मेरी तरह अपने घरवालों को सकुशल ट्रेन चलने की सूचना दे रहे थे। अभी ट्रेन को चले ५ मिनट्स भी नहीं हुए थे तभी एक जन ने मेरे से पूछा की भाईजी आपकी कौन सी सीट हैं? मैंने अपने अप्पर बर्थ की तरफ इशारा किया। उन्होंने अपनी परिस्थिति को समझाते हुए बताया की ये बुजुर्ग और ये बिकलांग भाई मेरे साथ ही है परन्तु मेरी सीट दूसरे कोच में अल्लोटेड है इस वजह से मैं इनके साथ नहीं रह पाउँगा पर मेरा इनके साथ रहना बहुत जरुरी है। लोगों की झिक झिक से दूर रहने की वजह से और आराम से सफर करने के लिए मैं हमेसा अप्पर बर्थ लेता हूँ। जब मैंने सुना की वहाँ पर उनको लोअर बर्थ आल्लोट हुई है तो मैं साफ़ साफ़ शब्दों में ना बोलना चाहता था तभी मुझे दादाजी का चेहरा याद आया की जो एक छोटी सी समर्पण से इतना खुश हो सकते हैं फिर इस से तो उन्हें काफी ख़ुशी होगी, और ना चाहते हुए भी मैंने हामी भर दी और उस व्यक्ति ने मेरा बैग लेकर चलने लगा। बार बार बोलने के वावजूद भी उन्होंने मुझे मेरा खुद का बैग ढोने ना दिया। वहां पहुँचते ही मैंने देखा की साइड लोअर बर्थ पर एक लड़की बैठी हुई थी और मेरे सीट के सामने एक पति, पत्नी, माँ और एक ३-४ साल की छोटी सी बच्ची। साथ आये व्यक्ति ने सबको बताया की अब से यहाँ मैं सफर करने वाला हूँ और उसने खुद ही टी.टी.इ को भी खबर कर दी। 

शाम ६ बजे तक ऑफिस में रहने के बाद और आते वक़्त पुणे की समुन्द्ररूपी ट्रैफिक को झेलने के बाद मेरे अंदर और कुछ देर भी बैठे रहने की हिम्मत नहीं बची हुई थी। ट्रेन में अक्सर औरतें लोअर बर्थ पर ट्रेवल करना चाहती हैं अतः उस परिवार ने मुझे अपर सीट दे दिया। कुछ देर और बैठने के बाद मैं ऊपर जाने ही वाला था तो मेरी नज़र उस छोटी सी बच्ची पर गयी जो मुझे ही देख रही थी। मैंने उसे देखा और मुस्कुरा कर ऊपर सोने चला गया और एवज़ में उसने भी अपनी प्यारी सी स्माइल दी। कुछ देर बाद मैंने देखा की साइड लोअर बर्थ पर बैठी लड़की के पास एक लड़का आया और दोनों बातें करने लगे। सायद वो दोनों टी.सी.एस में इंजीनियर थे और लड़का ऑनसाइट जानेवला था। लड़की ने खुद ही वो पूरी और सब्जी बनाई थी, और ना जाने कब यही सब बातें सुनते सुनते मैं गहरी निंद्रा में सो गया और थके होने की वजह से एक ही बार मेरी नींद सुबह ८ बजे खुली। नींद खुलते ही मैंने निचे बैठे लोगो को देखा और फिर अपना बैग। बैग को सुरक्षित पाकर एक राहत की सांस ली और फिर लम्बी यात्रा होने की वजह से मैं ऊपर ही पड़ा रहा। करीब एक बजे के आस पास निचे आकर बैठा। निचे आकर बैठते ही वो छोटी बच्ची जो कब से चलती ट्रेन से बहार के दृश्यों का आनंद ले रही थी, आकर मेरे पास बैठ गयी। मेरे साथ बैठते ही उसके माँ, डैड और दादी सभी ने मेरी तरफ देखा और मैंने बच्ची को देखते हुए मुस्कुराया और उस बच्ची ने भी एक क्यूट सी स्माइल की। फिर क्या था वो बच्ची मेरे बगल में सीट पर खड़ी होकर मेरे से बातें करने लगी। शुरू शुरू में तो मुझे उसकी एक बात भी समझ नहीं आ रही थी परन्तु मैंने ध्यान से सुनने की कोसिस की तो पता चला की वो मेरे से मराठी में बातें कर रही थी और मैं उससे हिंदी समझ रहा था। मुझे पुणे में रहते हुए अभी ढेढ़ वर्ष ही गुजरे है अतः मुझे मराठी बोलने नहीं आती परन्तु हाँ थोड़ी थोड़ी समझ जरूर लेता हूँ।

फिर हम दोनों देर तक बातें करते रहें, मैं हिंदी बोलता था और वो मराठी में जबाब देती थी और जब भी मुझे कुछ नहीं समझ में आती, तो मैं उससे बोलता था की शावि मुझे मराठी नहीं आती, मेरी टीचर बन जाओ फिर वो खिलखिला कर हंस पड़ती थी। बातों ही बातों में उसने मम्मी के पर्स से चॉकलेट्स निकली और सबसे पहले मुझे एक दिया, फिर सारे परिवारवालों को और अंत में खुद एक लेकर वापस फिर चॉकलेट्स वही रख दी। मेरे बार बार इंकार करने की वजह से, और ये बोलने की वजह से की मेरा भी तुम ही खा लो उसने मेरे हाथ से चॉकलेट्स उठाई और अपना चॉकलेट फिर मेरे हाथों में रख दी और मराठी में बोली की अब आप खुश हो ना, अब आप खा लो। समय का पता भी ना चला की कब चार बज गए उस बच्ची से बात करते हुए और खेलते हुए। अब उनका गंतब्य स्टेशन आनेवाला था। मैंने बोला शावि मैंने तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं ख़रीदा तो फिर उसके चेहरे पर वही मुस्कान थी , जैसे वह कह रही थी की कोई बात नहीं। फिर मैंने ट्रेन की पैंट्री सर्विसमैन से एक मूंग दाल की पैकेट खरीदी और पैसा चूका ही रहा था तब तक उस पैकेट पर अधिकार जमाते हुए उसने वो पैकेट ले लिया। मुझे देने की भी जरुरत नहीं पड़ी और नाही बोलने की जरूरत पड़ी की मैंने ये तुम्हारे लिए ही लिया है। मेरी नज़र उनके माँ डैड पर गयी जो गुस्से वाली नज़र से उसे देख रहे थे फिर मैंने बोला की मैंने ये शावि के लिए ही ली हैं। शावि वो पैकेट फाड़ने ही वाली थी की उनका स्टेशन आ गया और वो निचे उतरने लगे। जाते-जाते शावि एक बार फिर मुस्कुराई , सायद वह शेयर ना कर पाने की वजह से सॉरी बोल रही थी। मैंने बोला की तुम रख लो इसे और उसने अपने नन्ही-नन्ही हाथों को आगे बढाकर मेरे से हाथ मिलायी और निचे उत्तर गयी। निचे उतरते ही उसकी अंतिम मुस्कान मैंने देखी और उसने हाथ हिलाकर मुझे बाय किया , तब तक ट्रेन भी धीरे धीरे उस स्टेशन से प्रस्थान कर चुकी थी। मैंने देखा उस बच्ची के हाथ अब भी हिल रहे थे और जब तब वो मेरे नज़रों से ओझल ना हो गयी एक टक मैं उससे देखता रहा और मुस्कुराता रहा।

ट्रेन के गति पकड़ते ही मेरे अंतर्मन में भी अविरल और अनंत प्रश्न उठने लगे। कितनी प्यारी थी ये बच्ची , सच में बच्चे भगवान का रूप होते हैं जिसके एक मुस्कान के आगे स्वर्ग का भी आनंद फीका पड़ जाता होगा। जिसके अंदर कोई स्वार्थ नहीं और इतनी भोलापन, शायद भगवान का भी मन जब इन्शानो की दरिंदगी , स्वार्थ और पापों को देख कर रोता होगा तो वो भी इन बच्चों को देख कर खुश हो जाते होंगे। क्यों ऐसा सुनने में आता है की ट्रेन से चॉकलेट्स के बहाने छोटे बच्चे को अगवा कर लिया गया ? क्या ऐसे लोग एक बार भी उस चेहरे की मुस्कराहट से मुस्कुराते नहीं हैं ? क्या उनके अंतर्मन भोली सूरत देख कर पसीजता नहीं होगा ? लोग कैसे इतने इनोसेंट और प्यारी बच्ची या बच्चों के साथ बलात्कार जैसे बड़े दुष्कर्म कर लेते हैं ? क्या ऐसा सोचते समय उन्हें अपने बचपन याद नहीं आते होंगे ? क्या वो प्यार सा इनोसेंट स्माइल उन्हें नहीं दीखता ? क्या इस कलयुग में लोग इतने मक्कार , झूठे , फरेबी , स्वार्थी और पाखंडी हो गए हैं ? क्या एक मराठी बोलने वाली बच्ची अगर एक उत्तर भारतीय से मुस्कुरा कर बातें कर सकती है और चंद समय में अपना मान सकती है फिर क्या आज के पढ़े-लिखे नौजवान और नेता क्षेत्रवाद और धर्मवाद की लड़ाई बंद नहीं कर सकते हैं ? क्या एक मेचौरे इन्शान बच्चों से नहीं सिख सकता है ? और इसी समुंद्रमंथन के दौरान एक और बड़ा सवाल मेरे दिमाग को झकझोर गया की क्या पाकिस्तान में जीन आतंकवादियों ने बच्चों पर गोलियां चलायी क्या उस समय उनके हाथ ना कांपे होंगे ? क्या अपने बच्चों की भोली सूरत और मुस्कान उनके जेहन में एक बार भी न आया होगा ? क्या उन्होंने एक बार भी ना सोचा होगा की ये बच्चें खुदा के पैगम्बरों से भी बड़े हैं, जिनके मन में ना कोई स्वार्थ है, न द्वेष, न ईर्ष्या, सिर्फ और सिर्फ प्यार है। एक छोटी सी बच्ची एक छोटी सी घडी में मेरे अंतर्मन में इतने सारे प्रश्नों को छोड़ कर चली गयी। ट्रेन अगले स्टेशन पर रुक चुकी थी और एकाएक समुंद्रमंथन तब रुका जब उसी सीट पर एक छोटी सी बच्ची अपनी माँ के साथ बैठी और मेरे तरफ देखते हुए मुस्कुराई। मैंने देखा की मेरी आँखें डबडबाई हुई थी, मैंने चारो तरफ देखा की कोई देख तो नहीं रहा है, और फिर अपने आँखों के ऊपर से हाथ फेरते हुए उसी बच्ची की तरह चल पड़ी ट्रेन से बाहर का दृश्य देखने लगा।